Thursday, July 19, 2018

हिमालय की प्रतिदिन हत्या हों रहीं हैं।

आज टिहरी जिले के चम्बा के पास किसी बस दुर्घटना की तस्वीर एक पत्रकार ने भेजी। चित्र में बस तो दिखती नहीं परंतु जिस क्षेत्र में वह गिरी हैं वो स्थान मेरी इस पीड़ा को अधोरेखित करता हैं की, हिमालय की दिन प्रतिदिन हत्या हों रही हैं। क़रीब दो दशक पहले बने चम्बा उत्तरकाशी मार्ग का वह क्षेत्र किसी रेगिस्तान के माटी के टीले समान दिखाई देता हैं। 


सड़क बनाते समय मिट्टी खाईं में धकेली गयी ऐसे टीले
सड़क बनाते समय जो मिट्टी खाईं में धकेली गयी उससे ऐसे विद्रुप टीले पूरे हिमालय क्षेत्र में जगह जगह दिखते 
हैं। गाँव गाँव तक सड़क बनाने का आश्वासन सरकारें / राजनीतिक पार्टियाँ आम जनता को देते रहते हैं। सड़क का आश्वासन ही वोट बटोरने का प्रमुख साधन हैं।परंतु एक सड़क बनाने का मतलब हज़ारोंलाखों पेड़ों की हत्या करना।कित्येक वर्षों तक ब्लास्टिंग करके पहाड़ तोड़कर सड़क बनाने का सिलसिला जारी रहा उससे पहाड़ खोखला 
हुआ हैं। ऑल वेदर रोड के निर्माण में ब्लास्टिंग नहीं की गयी यह बड़ी अच्छी बात हैं।
सड़कें बनाते समय पर्यावरणवादी जब विरोध करते हैं तो उन्हें यह कहकर चुप किया जाता हैं की जितने पेड 
काटे हैं उतने ही पेड लगायें जाएँगे।परंतु यह आश्वासन कभी पूरा नहीं होता क्योंकि यह वोट बटोरने की राजनीति से सम्बंधित नहीं हैं।इस आलेख के साथ जुड़े इस चित्र से पता चलेगा की दो दशक से पूर्व निर्मित इस सड़क के नीचे के रेगिस्तान 
जैसे मलबे पर  तो कोई पेड लगाए गए या बीज बोए गए हैं। 

चार धाम ऑल वेदर मार्ग के निर्माण के समय भी हिमालय प्रेमियों ने वृक्ष तोड़ने के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई थी 
और यही आश्वासन दिया गया की जितने पेड काटे उतने ही पेड लगाए जाएँगे।अब समय ही बताएगा की कितने पेड लगते हैं। और यह सिर्फ़ सरकारों कीविभागों की ज़िम्मेदारी नहीं हैं।आम नागरिक को पौधे लगाने के मामले में आगे आना पड़ेगा।कुछ दिन पहलें मैंने कुछ साथियों के साथ मिलकर चार धाम मार्ग के कुछ हिस्सों के खाईं में गिरे मलबे में 
३०,००० से अधिक बीज बोयेंबिखेरें। 

ऋषिकेश के पास से बहती गंगा

दूसरा बड़ा महत्वपूर्ण मुद्दा हिमालय के विनाश का कारण बना हुआ हैं, वह हैं पिछले कुछ दशकों से वृक्षारोपण में की गयी ग़लतियाँ। आज हिमाचल और उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में चीड़ के वन एक विकराल समस्या के रूप में खड़े हैं। कई दशकों तक सरकारी तौर पर बड़े ज़ोर शोर के साथ चीड़ का पौधारोपण किया गया। ग्रामवासियों को रोज़गार देने हेतु चीड़ के पौधे लगाने का काम दिया गया। आज यही चीड़ वानाग्नि फैलाने का मुख्य कारण बन गया हैं। चीड़ ज़मीन को शुष्क बनाता हैं, चीड़ अपने नीचे और कोई जड़ी बूटी, घास नहीं पनपने देता। चीड़ की पत्तियों में तेज़ाब होता हैं ऐसे ग्रामीण बताते हैं। चीड़ की पत्तियों से फिसलन हों जाती हैं जिससे फिसलकर कई मवेशियों के खाईं में जाने के हादसे हुए हैं। 
हिमालय में विदेशी नीम के नाम से डैंकण नाम का वृक्ष भी और एक विनाशकरी वृक्ष साबित हुआ हैं जो ज़मीन को शुष्क बनाता हैं। चीड़ और डैंकण और नीलगिरी (युकलिप्टस) जैसे वृक्ष ही हिमालय पहाड़ियों के नैसर्गिक जलस्त्रोतों को सुखाने के मुख्य कारण हैं। आम पहाड़ी अच्छी तरह से जानता हैं कि बांज के जड़ों में नमी होती हैं, परंतु आश्चर्य की बात हैं की पिछले कुछ दशकों में किए वृक्षारोपण में स्त्रोतों के आसपास बांज लगाने के बजाय चीड़ के पेड लगाए गए जों आज स्त्रोतों को सूखा रहे हैं। यह सचमुच एक चिंतन का विषय हैं की चीड़ के वृक्षारोपण को किस साज़िश के तहत प्रोत्साहित किया गया?

वृक्षारोपण का अन्य पहलू हैं, स्थानीय प्रजातियों के वृक्षों को बढ़ावा ना देना और कलमी वृक्ष लगाना। नर्सरी में तकनीक से बनाए गए कुछ पौधों के बीज अंकुरित नहीं होते हैं ऐसा ग्रामीणों का अनुभव रहा हैं। यदि ऐसे पेड बहुत बड़ी मात्रा में लगाए गए हैं तो पंछियों द्वारा उनके बीज खाकर बिखेरने से नई पौध उत्पन्न ही नहीं होगी। यदि ऐसा होता हैं तो नैसर्गिक वृक्षारोपण की एक अहम शृंखला को हम बाधित कर चुके हैं। 




मेरा मानना हैं कि गंगा गंगा इसलिए हैं क्योंकि उसमें हिमलयन पहाड़ियों की हर जड़ी बूटी का निचोड़ उसमें आता हैं। हिमालय के जिन विशेष पत्थरों से स्पर्श कर गंगा का पानी आता हैं उनका प्रभाव जल पर होता हैं। जडिबुटीयों का कम होना, स्त्रोतों का सुखना, पत्थरों का खनन आदि कारण गंगा के जल प्रवृत्ति को बदल रहे हैं। 

पेड़ों का कम होना, ग़लत प्रजाति के वृक्षों का विस्तार, जड़ी बूटियों का कम होना, स्त्रोतों का सुखना आदि कारणों से हिमक्षेत्र में तापमान बढ़ रहा हैं। यही वजह हैं की हम बारबार ख़बरों में सुनते हैं की ग़्लेशिअर पिघल रहे हैं। पहाड़ी क्षेत्र की गर्मी बढ़ने का और एक कारण हैं, वाहनों की बढ़ती आवाजाही। इससे वायु प्रदूषण और ध्वनि प्रदूषण बहुत बढ़ा हैं। 


योगी अरविंद
हिमालय योगियों को, पर्यटकों को सदैव आकर्षित करता हैं। ट्रेकिंग, राफ़्टिंग, कैम्पिंग जैसे नए पहलू और अधिक पर्यटकों को आकर्षित कर रहे हैं। एक नए व्यक्ति का हिमक्षेत्र में आना, गंगा क्षेत्र में आना मल मूत्र, प्लास्टिक कूडा, पानी की बोतलें, अन्य कूडा इत्यादि बढ़ाता हैं। यहीं कारण हैं की सात वर्ष पूर्व हमने जब गौरीकुंड, केदारनाथ में मंदाकिनी नदी का सफ़ाई अभियान चलाया था तो तीन घंटे में ५०० किलो से अधिक प्लास्टिक कूडा साफ़ किया था। नदी मात्र २० किलोमीटर बहने के बाद यदि उसमें इतना प्लास्टिक हों तो विचार कीजिए गंगा की सारी ट्रिब्युटेरीज़ में कितना प्लास्टिक कूडा बहता होगा। यह निश्चित ही बहुत भयावह चित्र हैं। 
इंसान प्रत्येक क़दम हिमालय और गंगा की हत्या कर रहा हैं यदि वह क़दम रास्ते बनाने वालों का हैं, गाड़ी चलाकर हिमालय पहुँचने वालोंका हैं, ग़लत तरीक़े के पौधे लगाने वालोंका हैं, नदी किनारे भवन, आश्रम इत्यादि निर्माण करनेवालों का हैं, मौजमस्ती करने आए पर्यटकों का हैं। 

हमें एक क़दम आगे बढ़ाना होगा, अविलंब।
हिमालय को वृक्षरूपी प्राण देने के लिए।
जीवनदायिनी गंगा को ऊर्जा देने के लिए।

हमारा हिमालय पर रखा प्रथम क़दम हिमालय की रक्षा के लिए, दूसरा क़दम माँ गंगा की स्वच्छता एवं अविरलता के लिए और तीसरा क़दम हमारे आत्मोत्थान के लिए रखना चाहिए। 

हरि ॐ। 

योगी अरविंद
कुंजापुरी, नरेंद्र नगर (टि. .)

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